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बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :250
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2632
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत

अध्याय - 4

 

किरातार्जुनीयम् (प्रथम सर्ग)

 

व्याख्या भाग

1. श्रियः करुणामाधिपस्य पालनी प्रजासु वृत्तिं यमंयुङ्क्तं वेदितुम्।
    स वर्णिलिङ्गीविदितः समाययौ युधिष्ठर द्वैतवने वनेचरः॥

अन्वय- करुणाम् अधिपत्य श्रियः पालनी प्रजासु वृत्ति वेदितुम् यम् अयुक्त, वर्णिलिंगी स वानेचर विदिति (सन्) द्वैतवने युधिष्ठिर समाययौ।

शब्दार्थ - कुरुणाम= कुरु जनपद के अधिपत्य राजा की, श्रियः = लक्ष्मी की, सः वर्णिलिंगी वह ब्रह्मचारी वेषधारी, वनेचर = वनवासी युद्धिष्ठिर = युधिष्ठिर के पास, समाययौ = लौट आया।

संदर्भ - अथ श्लोके महाकवि भारवि विरचितः किरातार्जुनीयस्य प्रथमसर्गात् अस्माकं पाठयक्रमे सङ्ग्रहीत अस्ति।

प्रसंङ्ग - प्रस्तुत श्लोके युधिष्ठिरस्य वनेचरस्य वर्णयन कविः कथयति -

व्याख्या - कुरूजनपदानाम् स्वामिनः राज्ञः दुर्योधनस्य साम्राज्यलक्ष्म्याः संरक्षिका प्रजाविषयेक वृत्तिम ज्ञातुम यं नियुक्तवान् ब्रह्मचारीवेषवान् सा. वनेवर सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्ञात्वा द्वैतवने युधिष्ठिरस्य समीप अजगाम्।

टिप्पणी -
(1) आदि का श्री शब्द मङ्गलवाचक है।
(2) किरातार्जुनीयम् पद की व्युत्पत्ति इस  प्रकार है किरातः च अर्जुन च इति किरातार्जुनौ द्वन्द्व समास किरातार्जुनी अधिकृत्यकृत काव्यम् इति किरातार्जुनीयम्। किरातार्जुन + छ आयनेयीनीयियः फढवस्था प्रत्यादी नाम सूत्र से छ को ईय जादेश होने पर किरातार्जुनीय शब्द बनता है।
(3) भारवि के वचनों को मल्लिनाथ ने नारिकेल फल सम्मित कहा है।
(4) कृत्यनुप्रास है।

2. कृतप्रणामस्य मही महीभुजेजितां सपलेन निवेदयिष्यतः।
    न विव्यथे तस्य मनो न हि प्रियं प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषाहितैषिणः॥

अन्वय - कृत प्रणामस्य सपलेन जिता महीं मही भुजे निवेदयिष्यतः तस्य मन न विव्यथे। हि हितीषिणा: मृणा प्रिय प्रवक्तुम न इच्छन्ति।

शब्दार्थ - कृत प्रणामस्य जिसने प्रणाम किया है, महीभुजे = राजा युधिष्ठिर के लिए, निवेदयिष्यत = निवेदन करते हुए, मृषा = मिथ्या, प्रवक्तुं = बोलने की, इच्छन्ति = इच्छा करते हैं।

सन्दर्भ - अथ श्लोके महाकवि भारवि विरचितः किरातार्जुनीयस्य प्रथमसर्गात् अस्माकं पाठयक्रमे सङ्ग्रहीत अस्ति।

प्रसङ्ग - दुर्योधनस्य समस्त वृत्तान्त गृहीत्वा आगत: वनेचरः युधिष्ठिरं प्रति कथयति।

व्याख्या - स च वनेचर युधिष्ठिर प्रणम्य यथादृष्ट स्वामीद्रोहिप्रशंसापरमपि दुर्योधनकृत राज्यशासनविधि प्रवक्तुम् उद्यतः। परन्तु तस्य चित्तं न व्यथितम् अभूत् यतः प्रभामङ्गलार्थिनः मिथ्याभूतिसुभग वचन कथयितुम् न वाञ्छन्ति।

टिप्पणी-
(1) वंशस्थ छन्द है।
(2) अर्थान्तरन्यास अलंकार है।
(3) प्रणाम प्र + नम् + घञ्।
(4) निवेदयिष्यतः नि + विद + णिच + शतृ = निवेदयिष्यत् ।

3. द्विषां विद्यालाय विधातुमिच्छतो रहस्यनुज्ञामधिगम्य भूभृतः।
    स सोष्ठवौदार्य विशेषशालिनीं विनिश्चितार्थामितिं वाचमाददे॥

अन्वय - द्विषा विधाताय विधातुम इच्छतः भूमृतः अनुज्ञाम् अधिगम्य स रहसि सौष्ठवौदार्य विशेषशालिनी विनिश्चितार्थाम् इति वाचम् आददे।

शब्दार्थ - द्विषां = शत्रुओं के, इच्छत = इच्छा करते हुए, अनुज्ञाम् = आज्ञा को,  रहसि = एकान्त में, इति वाचम = ऐसी वाणी को, आददे = बोलना प्रारम्भ किया।

सन्दर्भ - अथ श्लोके महाकवि भारवि विरचितः किरातार्जुनीयस्य प्रथमसर्गात् अस्माकं पाठयक्रमे सङ्ग्रहीत अस्ति।

प्रसंग - स्वामी युधिष्ठिर से आज्ञा प्राप्त कर वनेचर दुर्योधन की समस्त गुप्त बातों को कहना प्रारम्भ कर देता है।

व्याख्या - शत्रुओं के विनाश के इच्छुक राजा युधिष्ठिर की आज्ञा प्राप्त कर वह बनेचर एकान्त मे अपनी शब्द सामर्थ्य एव अर्थगौरव के वैशिष्टय से अलंकृत एवं विशेष रूप से निर्णीत तात्पर्य वाली बोली में दुर्योधन के समस्त गुप्त वृत्तान्त को उनके समक्ष प्रस्तुत करता है।
टिप्पणी
(1) वंशस्थं छन्द।
(2) काव्यालिङ्ग अलंकार।
(3) विधातुम = विधा + तुमुन।
(4) अनुज्ञा = अनु + ज्ञा + अण।
(5) शालिनी = शाल + णिनि + डीप।
(6) आददे = आ + दा + लिट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन।

4. क्रियासु युक्तैर्नृप चारचक्षुषो न वञ्चनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः।
    अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधुसाधु वा हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः॥

अन्वय - नृप। क्रियासु युत्तैः अनुजीविभिः चारचक्षुष प्रभवः न वनीयाः। अतः असाधु साधु वा क्षन्तुम अर्हसि। हित मनोहारिच वच दुर्लभम्।

शब्दार्थ - क्रियासु = कार्यों में, युक्त = नियुक्ति, अनुजीविभिः = नौकरों के द्वारा, मनोहारि = मन को अच्छे लगने वाले, वच = वचन।

प्रसङ्ग - बनेवर युधिष्ठिर प्रति कथयत प्रथमं यावत प्रियनिवेदकम् आत्मान प्रत्यक्षोभं याचते।

व्याख्या - हे राजन् ! कर्तव्यविषयेषु नियुक्त अधिकृतै पुरुषः प्रणधिनेत्र राजानः न प्रतारणीया अतः अस्मात् कारणात् अप्रिय वा प्रिय सोढुम् योयोऽसि। हितकर च सुन्दरम् च वाक्य न सहजलभ्यम्। प्रायेण हि हितवचनानि कर्णकठोराणि अप्रियाणि च भवन्तीति भावः।
टिप्पणी -
(1) वंशस्थ छन्द।
(2) काव्यालिङ्गालंकार।
(3) प्रसाद गुण।
(4) वैदर्भी रीति।
(5) अनुजीविभिः अनु जीव + णिनि तृतीया विभक्ति बहुवचन।
(6) अर्हसि अर्ह धातु लट् लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन ।
(7) दुर्लभम् - दर + लम + खल
 
5. स कि सखासाधुनशास्तियोऽधिपं हितान्न यः संश्रृणुते स कि प्रभुः।
    सदाऽनुकूलेषु हि कुर्वते रतिं नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः॥

अन्वय - यः अधिप साधु न शास्ति सः किंसखा। यः हितात् न सश्रृणते सः किंप्रभु। हि नृपेषु अमात्येषु च अनुकूलेषु सर्व सम्पदः सदा रति कुर्वते।

शब्दार्थ - अधिप = राजा को, किंसखा = कुत्सित मित्र है, अमात्येषु = मन्त्रियों में, सम्पद = सम्पत्तियाँ, रतिम् = अनुराग, कुर्वते = करती है।

सन्दर्भ - अथ श्लोके महाकवि भारवि विरचितः किरातार्जुनीयस्य प्रथमसर्गात् अस्माकं पाठयक्रमे सङ्ग्रहीत अस्ति।

प्रसङ्ग - अस्मिन् श्लोके वनेचर स्वामीसेवकयोः गुणान् वर्णयति।

व्याख्या - मन्त्रिभिः राजा उपदेष्टव्य राजा च मन्त्रिवचासि श्रोतव्यानि एवञ्च राजमन्त्रिणोरकमल्ये एव सर्वसम्पद सदा लभयन्ते वैमत्ये च तयो: लब्धापि लक्ष्मी नश्यतीति।

टिप्पणी-
(1) वंशस्थ छन्द।
(2) अर्थान्तरन्यासालकार।
(3) किंसखा - कुत्सितः सखा इति कर्मधारय।
(4) रतिं - रम + क्तिन्।
(5) नृपेषु - नृ + पा + क. सप्तमी बहुवचन।
(6) सम्पदः - सम + पद् + क्विप।

6. निसर्गदुर्बोधमबोधविक्लवाः क्व भूपतीनां चरितं क्व जन्तवः।
    तवानुभावोऽयमवेदि यन्मया, निगूढतत्वं नयवर्त्म विद्विषाम ||

अन्वय - निसर्गदुबोध भूपतीनां चरित व? अबोधविक्लवा: जन्तवः क्व? यत् मया विद्विषाम् निगूढतत्वं नयवर्त्म अवेदि अयम् तव अनुभावः।

शब्दार्थ - निसर्गदुर्बोध = स्वभाव से ही समझ सकने में कठिन, भूपतीनाम् = राजाओं का, विद्विषाम् = शत्रुओं का, अवेदि = जाना गया. अनुभाग = सामर्थ्य है।
सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

व्याख्या - निसर्गदुर्बोध भूपतीनां चरितं क्व? अबोधविक्लवा जन्तवः क्वः? मया विद्विषां निगूढ तत्वं नयवर्ग पद अवेदि अय तब अनुभावः।। 

टिप्पणी-
(1) वंशस्थ छन्द।
(2) विषमालंकार इसका लक्षण है विरुषयोः सङ्गठनाया च तद्विषमं मतम्।
(3) निसर्ग - नि + सृज् + ञ्। विक्लव वि + क्लव् + अच्।

7. विशङ्कमानो भवतः पराभवं नृपासनस्थोऽपि वनाधिवासिनः।
     दुरोदरच्छजितां समीहते नयेन जेतुं जगतीं सुयोधनः।।

अन्वय- सुयोधनः नृपासनस्थ अपि वनाधिवासिनः भवतः पराभव विशङ्कमानः दुरोदरच्छद्मजिता जगती नयेन जेतुं समहीते।

शब्दार्थ- सुयोधन = दुर्योधन, भवतः = आप, पराभव = पराज्य, नयेन = नीति से, जेतुं = जीतने के लिए, समीहते = चाहता है

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर द्वारा दुर्योधन की गतिविधियों का पता लगाने हेतु भेजा गया दूत वनेचर राजा युधिष्ठिर को दुर्योधन की राजनीतिक सूझ-बूझ के विषय में बताता है।

व्याख्या - दुर्योधन, यद्यपि राजसिंहासन पर विराजमान है फिर भी उसे आप लोगों द्वारा अनिष्ट किये जाने की आशंका है। वह द्यूत के छल-कपट से जीती हुई पृथ्वी को नीति के बल से अपने वश में करना चाहता है अर्थात् दुर्योधन राज्य का अधिकारी होकर भी आप वनवासियों से डरा हुआ है। वह आपसे पराजित होने की संभावना से पीड़ित है और वह अब ऐसी राजनीति सीख रहा है जिससे उसके हाथ आया हुआ राज्य उसके हाथ से निकल न जाये।

टिप्पणी-
(1) वंशस्थ छन्द
(2) काव्यलिङ्गालकार इसका लक्षण है काव्यलिङ्ग हेतो वाक्य पदार्थता।
(3) सुयोधनः- सु + युध् + युत् प्रत्यय।

8. तथाऽपि जिह्नः स भविज्जगीषया तनोति शुभं गुणसम्पदा यशः।
     समुन्नयन्भूतिमनार्थसङ्गमाद्वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः।

अन्वय - तथा जिम अपि सः भवजिगीषया गुणसम्पदा शुभ्र यशः तनोति। भुति समुद्रयन् महात्मभिः समं विरोधः अपि अनार्थ संगमात् वरम्।

शब्दार्थ - जिहम = कुटिल, तनोति = विस्तार करता है, भूति = ऐश्वर्य को, समुन्नयन = बढ़ाते हुए, वरम् = श्रेष्ठ है।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में वनेचर युधिष्ठिर को बताता है कि किस प्रकार वह दुर्योधन कुटिल हृदयी होने पर भी अच्छे कार्यों को करता हुआ अपने गुणों का विस्तार कर यश प्राप्त करना चाहता है।

व्याख्या - तो भी वह कुटिल दुर्योधन आपको जीतने की अभिलाषा से दया, दक्षिणा आदि सद्गुणों की गरिमा के द्वारा अपने निष्कलडू यश का विस्तार कर रहा है। ऐश्वर्य की अभिवृद्धि करता हुआ सज्जनो के साथ विरोध भी दुर्जन के ससर्ग से श्रेष्ठ होता है।

टिप्पणी -
(1) वंशस्थ छन्द।
(2) अर्थान्तरन्यास अलंकार।
(3) प्रसाद गुण।
(4) वैदर्भरीति।
(5) जिह्न हा मन उणादि प्रत्यय।
(6) समुन्नयन् सम् + उत् नी + शतृ।

9. कृतारिषड्वर्गजयेन मानवी. मगम्यरूपाम् पदवी प्रपित्सुना।
    विभज्य नक्तं 'दिवमस्ततन्द्रिणा, वितन्यते तेन नयेन पौरुषम्॥

अन्यय - कृतारिषड्वर्गजयेन अगम्यरूपा मानवी पदवी प्रपित्सुना अस्ततन्द्रिणा तेन नक्तन्दिव विभज्य नयेन पौरुष वितन्यते।

शब्दार्थ - अगम्यरूपाम् = दुष्प्राप्य, मानवीम् = मनु की, विभज्य = विभाग करके, नयेन = नीतिपूर्वक, पौरुषम् = पुरुषार्थ का, वितन्यते = फैलाया जा रहा है।

सन्दर्भ- प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में दुर्योधन पुरुषार्थ और नीति दोनों के द्वारा ही यश प्राप्त करने का इच्छुक है। इस बात को बनेचर युधिष्ठिर को बता रहा है।

व्याख्या - वनेचर युधिष्ठिर से कहता है कि हे राजन! मनु की शासन पद्धति बड़ी ही गहन है। उस पर चलना हर एक के बस की बात नहीं है। दुर्योधन उसी राजनीति पर चलना चाहता है। उसने अपने भीतर छिपे (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और अहंकार) इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली है और आलस्य का सर्वथा त्याग कर दिया है। वह रात दिन की अलग-अलग समय सारिणी तैयार कर उसी के अनुसार अपना काम करता रहता है तथा नीतिपूर्वक अपने पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) के कार्य को पूरा करता है।

टिप्पणी -
(1) वंशस्थ छन्द।
(2) वृत्यनुप्रास।
(3) जिं + अच् = जय।
(4) अस्ततन्द्रिणा अस्ता तन्द्रिः यस्य सः तेन बहुब्रीहि अस् + क्त तदि + किन (भावे)।
(5) मानवी - मनु + अम् + डीप - मानवी।

10. सरवीनिष प्रीतियुजोऽनुजीविनः समानमानान् सुहृदश्च बन्धुभिः।
      स सन्ततं दर्शयते गतस्मयः कृतधिपत्यामिव साधु बन्धुताम्॥

अन्वय - गतस्मयः सः अनुजीविन प्रीतियुज सखीन् इव सुहृद च बन्धुभिः समानमानान् इव बन्धुतां कृताधिपत्याम् इव साधु सन्ततं दर्शयते।

शब्दार्थ - गतस्मय = अहंकार रहित, प्रीतियुज = स्नेहशील, सखीन् = मित्रों, दर्शयते = दिखाता है।

सन्दर्भ- प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - वर्तमान समय में दुर्योधन का सेवकों के प्रति कैसा व्यवहार है इसी का वर्णन वनेचर करते हुए कहता है

व्याख्या - दुर्योधन अब अपने अहंकारयुक्त पूर्व स्वभाव के विपरीत निरन्तर निष्कपट भाव से सेवकों को स्नेही सखाओं के समान, अपने मित्रों को बन्धुजनो के तुल्य सम्मान वाले भाइयों की भाँति तथा अपने बान्धवों को स्वामियों के समान मानता है।

टिप्पणी
(1) वंशस्थ छन्द।
(2) उपमालङ्कार।
(3) प्रीतिः प्री + तिन्।
(4) प्रीतियुज प्रीति + युज + क्विप् प्रीत्या युज्यन्ते इति प्रीतियुज उप पद समास।

11. आसक्तमाराधयतो यथायथं विभज्य भक्त्या समपक्षपातया।
      गुणानुरागादिव सख्यमीयिवान् न बाधतेऽस्य त्रिगणः परस्परम्॥

अन्वय - यथायथं विभज्य समपक्षपातया भक्त्या, असक्तम् आराधयतः अस्य त्रिगण गुणानुरागात् सख्यम ईविवान् इव परस्परं न बाधते।

शब्दार्थ - आसक्त = किसी एक में आसक्त न होकर, यथायथ = यथोचित, विभज्य = विभक्त करके, भक्त्या = अनुराग से समपक्षपातया = समान पक्षपात हैं जिसमें अर्थात् समानपक्षपातपूर्ण, गुणानुरागात = (दुर्योधन) के गुणों के प्रति अनुराग के कारण, सख्यम् = मित्रता को, इयिवान = प्राप्त हुये के समान, न बाधते = बाधित नहीं करता, त्रिगणः = धर्म, अर्थ एवं काम का त्रिवर्ग, परस्परम् = एक दूसरे को !

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - दुर्योधन किसी एक पुरुषार्थ में आसक्त नहीं है, अपितु उसके द्वारा धर्म, अर्थ एवं काम - इन तीनों पुरुषार्थों का समान रूप से विस्तार किया जा रहा है। इस बात को वनेचर कह रहा है।

व्याख्या - (धर्म, अर्थ एवं काम नामक तीनो पुरुषार्थों के सेवन के समय का) यथायोग्य विभाजन करके समान पक्षपात वाले अनुरागविशेष की भावना से (किसी एक में आसक्त न होकर) अनासक्त रूप से इन तीनों पुरुषार्थों का सेवन करने वाले इस (दुर्योधन) के तीनो पुरुषार्थों (दुर्योधन के श्रेष्ठ) गुणों में अनुराग के कारण (परस्पर) मित्रता को प्राप्त हुये के समान एक-दूसरे को कभी बाधित नहीं करते।

टिप्पणी -
1. वंशस्थ छन्द है।
2. उत्प्रेक्षा अलकार है, जिसका लक्षण इस प्रकार है। 'सम्भावनामथोत्प्रोक्षा प्रकृतस्य समेनयत्"
3. वैदर्भी रीति है।
4. प्रसाद गुण।
5 सखि शब्द में 'सख्युर्य' सूत्र से 'य' प्रत्यय लगकर सख्यम पद निष्पन्न होता है।

12. निरत्ययं साम न दानवर्जितं न भूरिदानं विरहय्य सत्क्रियाम्।
      प्रवर्तते तस्य विशेषशालिनी गुणानुरोधेन विना न सत्क्रिया।।

अन्वय - तस्य निरत्यय साम दानवर्जित न. भूरिदान सत्क्रिया विरहय्य न विशेषशालिनी सत्क्रिया गुणानुरोधेन विना न प्रवर्तते।

शब्दार्थ - तस्य = उस दुर्योधन की, निरत्ययम् = निर्वाध, साम = मृदुवाणी, दानवर्जित न = दानरहित नहीं होता, भूरिदानं = अत्यधिक दान, विरहय्य = सत्कार को छोड़कर, सत्क्रियाम = सत्कार को, न प्रवर्तते = प्रवर्तित नहीं होती है, विशेषशालिनी = वैशिष्ट्य से सुशोभित, गुणानुरोधेन = (विद्या, विनय आदि) गुणों के प्रति अनुराग के बिना।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - अग्रलिखित श्लोक में दुर्योधन के उपायकौशल का उल्लेख किया गया है। इस श्लोक मे वनेचर दुर्योधन की 'साम' और 'दान नीतियों के विषय में युधिष्ठिर को अवगत करा रहा है।

व्याख्या - उस (दुर्योधन) की निर्बाध (प्रवृत्त) मधुरवाणी दानरहित नहीं (होती), प्रचुर दान सत्कार के बिना नहीं (प्रवृत्त होता) और विशेष सुशोभित होने वाला सत्कार गुणों के प्रति अनुराग के बिना नहीं प्रवृत्त होता है।

टिप्पणी -
1. वंशस्थ छन्द ।
2. इस पद्य में पूर्व-पूर्व वाक्य के विशेषण के रूप में उत्तर-उत्तर वाक्य की स्थापना होने के कारण 'एकावली' नामक अलंकार है, इसका लक्षण इस प्रकार है- "स्थाप्यतेऽपोह्यते वापि यथापूर्वं परं परम्। विशेषणतया वस्तु यत्र सैकावली द्विधा।'
3. निर्गतः अत्यय. यस्मात्तदिति निरत्ययम् (बहुव्रीहि समास )। निर् + अति + इण् + अच् + भावे = निरत्ययम्।
4. वैदर्भी रीति, प्रसाद गुण।

13. वसूनि वाञ्छन्न वशी न मन्युना, स्वधर्म इत्येव निवृत्तकारणः।
गुरुपदिष्टेन रिपौ सुतेऽपि वा निहन्ति दण्डेन स धर्मविप्लवम्॥

अन्वय - वशी सः न वसूनि वाञ्छन्, न मन्युना (किन्तु), निवृत्तकारण (सन्) स्वधर्म इत्येव गुरुपदिष्टेन दण्डेन रिपौ सुतेऽपि वा धर्मविप्लवं निहन्ति।

शब्दार्थ - वसूनि = धनों को, वाच्छन् न = न चाहते हुये, वशी = इन्द्रियो को वश में करने क्रोध से नहीं, स्वधर्म = अपना धर्म, इत्येव = (स्वधर्म है) यही मानकर, वाला, न मन्युना = निवृत्तकारण: = कारण से रहित होकर. गुरुपदिष्टेन गुरुजनों द्वारा उपदिष्ट, रिपौ सुतेऽपि शत्रु अथवा = दण्ड से, धर्मविप्लवम = धर्म के व्यतिक्रम पुत्र में भी। निहन्ति = नष्ट करता है (दूर करता है), दण्डेन = दण्ड से, धर्मविप्लवम (अधर्म) को।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - इस श्लोक में वनेचर दुर्योधन की दण्डनीति विषयक कुशलता का वर्णन कर रहा है।

व्याख्या -इन्द्रियों को (अपने वश में करने वाला वह (दुर्योधन) न तो धन को चाहते हुये, न क्रोध से, प्रत्युत (लोभादि) कारणो से रहित होकर 'अपना धर्म (राजधर्म) है ऐसा (मानकर) (धर्माधिकारी) गुरुजनों द्वारा बताये गये दण्ड (विधान) से शत्रु अथवा पुत्र में भी (विद्यमान) धर्म के व्यतिक्रम को रोकता है।

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. वसूनि वस् धातु में उ प्रत्यय, वसु शब्द का द्वितीया विभक्ति बहुवचन। 5. दण्डेन 'दण्ड' पद 'दण्ड्' धातु णिच् प्रत्यय तथा कारण में घञ प्रत्यय।

14. विधाय रक्षान् परितः परेतरानशङ्किताकारमुपैति शङ्कितः।
क्रियापवर्गेष्वनुजीविसात्कृताः कृताज्ञतामस्य वदन्ति सम्पदः॥

अन्वय - परितः परेतरान् रक्षान् विधाय शडिकत (सन्नपि) अशङ्किताकारम् उपैति। क्रियापवर्गेषु अनुजीविसात्कृता: सम्पदः अस्य कृतज्ञता वदन्ति।

शब्दार्थ - विधाय = नियुक्त करके, रक्षान् = रक्षकों को, परित = चारों ओर, परेतरान् = जो पर अर्थात् शत्रुओं से भिन्न हो अर्थात् शत्रुओं का शत्रु शकित = शङ्कायुक्त, अशङ्किताकारम् = शङ्कारहित आकार को क्रियापवर्गेषु = कार्य समाप्त हो जाने पर, अनुजीविसात्कृताः = सेवकों को प्रदान की गयी. अस्य = इस (दुर्योधन की). कृतज्ञताम् प्रत्युपकार को अर्थात् जिसने उपकार किया है, वदन्ति = कहती हैं।

व्याख्या - (वह दुर्योधन) चारों और शत्रुओ को रक्षक नियुक्त करके (भीतर से) शङ्कित रहता हुआ भी शङ्कारहित व्यक्ति के सदृश आकृति बनाये रहता है। कार्य समाप्त होने पर सेवकों को दी गयी प्रचुर सम्पत्तियाँ इस (दुर्योधन) की कृतज्ञता को प्रदर्शित करती हैं।

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. इस पद्य में न 'शड़िक तथा नामक शब्दालंकार है। 5. अनुजीविन् + साति - अनुजीविसात। 'कृ' इत्यादि की आवृत्ति होने से 'अनुप्रास 'कृता पद कृ धातु में कर्म अर्थ 'क्त' प्रत्यय और स्त्रीलिङ्ग का टापू प्रत्यय लगाकर प्रथमाविभिक्ति बहुवचन में निष्पन्न होता है।

15.  अनारतं तेन पदेषु लम्भिता विभज्य सम्यम्विनियोगसत्क्रियाः।
फलन्त्युपायाः परिबृंहितायती रूपेत्य सङ्घर्षमिवार्थसम्पदः॥

अन्वय - तेन पदेषु सम्यग् विभज्य विनियोगसत्क्रिया लम्मिता उपायाः सङ्घर्षम् उपेत्य इव परिवृहितायती अर्थसम्पदः अनारतं फलन्ति।

शब्दार्थ-  तेन = उस दुर्योधन के द्वारा, पदेषु = कार्यों में, लम्मिता: = प्राप्त कराये गये, विभज्य = विभाजन करके, सम्यक् = भलीभाँति, विनियोगसत्क्रिया = प्रयोगरूपी सत्कार से युक्त, फलन्ति =  उत्पन्न करते हैं, उपाया. = साम, दाम, दण्ड और भेद नामक चारों उपाय, परिबृंहितायती = उन्नतियुक्त भविष्य वाली, सङ्घर्षम् उपेत्य इव = मानो प्रतिस्पर्धा को प्राप्त करके।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - दुर्योधन साम, दाम, दण्ड और भेद इन चारो उपायों के द्वारा जिस प्रकार अपने लक्ष्य की सिद्धि करना चाहता है, उसके विषय में वनेचर कह रहा है -

व्याख्या - उस (दुर्योधन) के द्वारा कार्यों में अच्छी तरह विभाजन करके प्रयोगरूपी सत्कार को प्राप्त कराये गये (साम, दाम, दण्ड और भेद - ये चारों) उपाय मानों (एक-दूसरे से) स्पर्धा करके समुन्नत भविष्य वाली धनसम्पत्तियों को निरन्तर उत्पन्न करते हैं।

टिप्पणी- 1. वशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. यद्यपि साम, दाम, दण्ड और भेद ये परस्पर कभी स्पर्धा नहीं करते। फिर भी प्रस्तुत श्लोक में अर्थ की सुन्दरता को अभिव्यक्त करने के लिये उनमें प्रतिस्पर्धा की सम्भावना की गयी है। अतः इसमे उत्प्रेक्षा' नामक अलंकार है।

16. अनेकराजन्यरथाश्वसड्कुलं तदीयमास्थाननिकेतनाजिरम्।
नयत्ययुग्मच्छदगन्धिरार्द्रतां भृशं नृपोपायनदन्तिनां मदः।।

अन्वय - नृपोपायनदन्तिनाम् अयुग्मच्छदगन्धि मद अनेकराजन्यरथाश्वसडकुल तदीयम् आस्थाननिकेतनाजिरम भृशम् आर्द्रता नयति।

शब्दार्थ - अनेकराजन्यरथाश्वसड्कुल = अनेक राजाओं के रथो एवं घोड़ों से व्याप्त, तदीयम् = उस (दुर्योधन) के, आस्थाननिकेतनाजिरम् = सभाभवन के आँगन को, नयति = प्राप्त कराता है, अयुग्मच्छ्दगन्धि = सप्तपर्ण के गन्ध के समान गन्ध वाला, आर्द्रताम् = गीलेपन को, भृशम् = अत्यधिक, नृपोपायनदन्तिनाम् = राजाओं के द्वारा उपहार में दिये गये हाथियों का, मदः = मदजल।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - दुर्योधन के अधीन रथों, घोड़ों तथा हाथियों से सम्पन्न बहुत से राजागण थे। राजाओं के द्वारा उपहार में उसे बहुत सम्पदा मिलती थी। प्रस्तुत श्लोक में वनेचर के द्वारा दुर्योधन की ऐसी ही धनसम्पदा तथा ऐश्वर्य का वर्णन किया जा रहा है।

व्याख्या - राजाओं के द्वारा उपहार में दिये गये हाथियों का सप्तपर्ण के पुष्प की सुगन्ध वाला मदजल, अनेक राजाओं के रथों एवम् अश्वों से व्याप्त उस (दुर्योधन) के सभाभवन के प्रागण को बहुत अधिक गीला कर देता है।

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी गुण 4. इस श्लोक में 'उदात्त' नामक अलंकार है, क्योंकि इसमें दुर्योधन की लोकोत्तर समृद्धि का वर्णन किया गया है। अलंकार-सूत्र के अनुसार इसका लक्षण है "समृद्धिमद्वस्तुवर्णनमुदात्तः" 5. अयुग्मच्छद + अण् प्रत्यय, इस स्थिति में 'पुष्पमूलेषु बहुलम्' इस वार्तिक से 'अन्' प्रत्यय, 'द्विहीनं प्रसवे सर्वम् से नपुंसकलिङ्ग में 'अयुग्मच्छदम्' पद निष्पन्न होता है। 6. अज् + किरन् = अजिरम् (आँगन)।

17.  सुखेन लभ्या दधतः कृषीवलैरकृष्टपच्या इव सस्यसम्पदः।
वितन्वति क्षेममदेवमातृकाश्चिराय तस्मिन् कुखश्चकासति॥

अन्वय - चिराय तस्मिन् क्षेम वितन्वति (सति) अदेवमातृका कुखः कृषीवलैः अकृष्टपच्या इव सुखन लभ्या सस्यसम्पदः दधतः (सन्त) चकासति।

शब्दार्थ - सुखेन = सुखपूर्वक, लभ्या = प्राप्त करने योग्य, दधत. = धारण करता हुआ, कृषीवलै = कृषकों द्वारा, अकृष्टपच्या इव मानो बिना जुताई के ही तैयार हो जाने वाली (फसल) हो. सस्यसम्पद = धान्यसम्पत्तियों को, वितन्वति = प्रसारित करते रहने पर, क्षेमम = कल्याण को,  अदेवमातृकाः = वर्षा के जल के सहारे न रहने वाले. कुख = कुरु जनपद, चकासति = सुशोभित हो रहा है।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - दुर्योधन ने कुरु राज्य और वहाँ की प्रजा को समृद्ध बनाने के लिये उल्लेखनीय कार्य किया था। जैसे वहाँ की प्रजा के लिए उसने नहरों और कुओं इत्यादि का निर्माण कराकर कुरु प्रदेश को सस्यसम्पन्न बना दिया था, राज्य केवल बादलों के आश्रित नहीं था।

व्याख्या- पर्याप्त समय से उसके (दुर्योधन के) द्वारा (प्रजाओं के) कल्याण (कल्याणार्थ) कार्य करते रहने पर (फलत वर्षा पर आश्रित न होकर) नदी (नहर इत्यादि कृत्रिम साधनो) के जल से सींचा जाने वाला कुरुप्रदेश किसानों के द्वारा मानो बिना जुताई के ही पकने वाली (अतः) अनायास ही प्राप्त धान्यसम्पत्तियों को धारण करता हुआ सुशोभित हो रहा है।

टिप्पणी - 1. वशंस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. उपर्युक्त श्लोक में 'उत्प्रेक्षा' अलड़कार है, जिसका लक्षण है - "सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत्। 5. क्षि + मन्= क्षेमम् 6. वितन्वति वि' उपसर्गपूर्वक तनु, विस्तारे धातु में शतृ प्रत्यय लगकर सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'वितन्वति पद सिद्ध होता है।

18. उदारकीर्तेरुदयं दयावतः प्रशान्तबाधं दिशतोऽभिरक्षया।
स्वयं प्रदुग्धेऽस्य गुणैरुपस्नुता वसूपमानस्य वसूनि मेदिनी॥

अन्वय - उदारकीर्तेः दयावतः अभिरक्षया प्रशान्तबधम् उदयं दिशतः वसूपमानस्य अस्य गुणै उपस्नुता मेदिनी वसूनि स्वयं प्रदुग्धे।

शब्दार्थ  उदारकीर्तेः = महान् कीर्ति है जिसकी, उसके, उदयम् = उन्नति को दयावत = दयावान का प्रशान्तबाधम् = बाधाओं से रहित, दिशत = सम्पादित करते हुए, अभिरक्षया = सब और से की गयी रक्षा के द्वारा स्वयं प्रदुग्धे = अपने आप दुह देती है, अस्य = इस दुर्योधन के, गुणैः = गुणों के द्वारा, उपस्नुता = प्रवीभूत हुई, मोदिनी = पृथ्वी, वसूपमानस्य = कुबेर की उपमा वाले अर्थात् कुबेर के समान वसूनि = सम्पत्तियों को।

सन्दर्भ-  प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - युधिष्ठिर से विरोध होने के पश्चात् दुर्योधन में अनेक सदगुणों का समावेश हो गया है। महाकवि भारवि के अनुसार जहाँ उसके सदगुणों से त्रिवर्ग में सर्वथा अविरोध हो गया है, वहीं प्रकृति के द्वारा भी उसके सद्गुणों के कारण उसे धनधान्यादि से समृद्ध किया जा रहा है। दुर्योधन के जिन गुणों से प्रभावित होकर कुरुप्रदेश की धरती उसे समृद्धवान् बना रही थी, सम्प्रति उन्हीं गुणों का वर्णन वनेचर कर रहा है.

व्याख्या- महान् यश वाले, दयावान, सब ओर से रक्षा के द्वारा (प्रजा की) निर्बाध उन्नति को सम्पादित करते हुए कुबेर के समान इस (दुर्योधन) के गुणों से द्रवीभूत पृथ्वी सम्पदाओं को स्वयं बरसाती है।

टिप्पणी - 1. वैदर्भी रीति 2. प्रसाद गुण 3. वंशस्थ छन्द 4. उपर्युक्त पद्य में प्रस्तुत उपमेय 'पृथ्वी' पर अप्रस्तुत उपमान 'गाय' के दोहनरूप कार्य का आरोप होने के कारण 'समासोक्ति' अलंकार है, जिसका लक्षण इस प्रकार है- "समासोक्तिः समैर्यत्र कार्यलिङ्गविशेषणैः। व्यवहारसमारोपः प्रस्तुतेऽन्यस्य वस्तुनः॥ 5. प्र' उपसर्गपूर्वक 'दुह' धातु से 'क्त' प्रत्यय लगकर आत्मनेपद में लट्लकार प्रथम पुरुष एकवचन में 'प्रदुग्धे' पद सिद्ध होता है।

19. महौजसो मानधनाः धनार्चिता धनुर्भृतः संयति लब्धकीर्तयः।
नसंहतास्तस्य नभिन्नवृत्तयः प्रियाणि वाञ्छन्त्यसुभिः समीहितुम्।।

अन्वय - महौजस मानधनाः धनार्चिता संयति लब्धकीर्तयः नसंहता नभिन्नवृत्तयः धनुर्भव तस्य प्रियाणि असुभिः समीहितुं वाञ्छन्ति।

शब्दार्थ - महौजसः = महान बलशाली, मानधनाः = स्वाभिमानी, धनार्चिता = धन के द्वारा समादृत, धनुर्मृतः = धनुष को धारण करने वाले योद्धागण, संयति = संग्राम में, लब्धकीर्तय = कीर्ति प्राप्त करने वाले, नसंहता. = (अलग) दल के रूप में संगठित न होने वाले, तस्य = उस दुर्योधन के, नमित्रवृत्तयः = एक-दूसरे से भिन्न व्यवहार न करने वाले, प्रियाणि = प्रिय कार्यों को वाञ्छन्ति चाहते हैं। असुभिः = प्राणों से, समीहितुम् = करने के लिये।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - कुरु राज्य के सैनिक किस प्रकार के हैं और वे दुर्योधन के प्रति किस तरह से समर्पित हैं? इसको वनेचर प्रस्तुत कर रहा है।

व्याख्या - महापराक्रमी, मानरूपी धन वाले (अर्थात् स्वाभिमानी) धन से सत्कृत, युद्ध में कीर्ति अर्जित करने वाले (स्वार्थ हेतु परस्पर) संगठित न होने वाले, न ही (एक-दूसरे के) विरुद्ध कार्य करने वाले धनुर्धर लोग उस दुर्योधन के प्रिय कार्यों को प्राणपन से पूरा करना चाहते हैं।

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. इस पद्य में 'काव्यलिङ्ग' और 5. 'परिकर' ये दो अलंकार हैं. साथ ही इन दो अलङ्कारों की ससृष्टि भी है। 6. भिद् + क्तः, कर्तरि + टापू स्त्रियाम् = भिन्ना। वृत् + क्तिन् भावे = वृत्तिः।

20. महीभृतां सच्चरितैश्चरैः क्रियाः स वेद निःशेषमशेषितक्रियः।
      महोदयैस्तस्य हितानुबन्धिभिः प्रतीयते धातुरिवेहितं फलैः॥

अन्वय - अशेषितक्रियः सः सच्चरितैः चरे महीभृतां क्रियाः निशेष वेद, धातुः इव तस्य ईहित महोदयैः हितानुबन्धिभिः फलैः प्रतीयते।

शब्दार्थ - महीभृतां = राजाओं के, सच्चरितैः = अच्छे, निष्कपट आचरण वाले, क्रिया = कार्यों को, स = वह (दुर्योधन), वेद = जानता है, निःशेषम् = पूर्णरूप से, अशेषितक्रिय = समस्त कार्यों को पूर्णरूप से सम्पन्न करने वाला, महोदयैः = अतिशय उन्नति वाले, तस्य ईहितम् = उस दुर्योधन के मन्तव्य, हितानुबन्धिभिः = शुभ परिणाम परम्परा वाले प्रतीयते = जाना जाता है, धातुरिव = ब्रह्मा के समान, फलै: = कार्यसिद्धियों से, चरैः = गुप्तचरों द्वारा।

सन्दर्भ- प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग -  दुर्योधन अन्य राज्यों के राजाओं की सारी गतिविधियों को अपने गुप्तचरों के द्वारा भलीभाँति जान लेता है, किन्तु उसके अपने मन्तव्य कार्यों के पूर्णतः सम्पन्न हो जाने के बाद ही जाने जा सकते हैं। इसी तथ्य को वनेचर कह रहा है.

व्याख्या -  (अपने राज्य के आन्तरिक) कार्यों को पूर्णरूप से सम्पन्न कर लेने वाला वह (दुर्योधन) अच्छे चरित्र वाले गुप्तचरों के द्वारा (अन्य) राजाओं के कार्यों को भलीभाँति जान लेता है, किन्तु उसका (अपना) मन्तव्य विधाता (के मन्तव्य) की भाँति अत्यधिक उन्नतिवाला तथा हितकारिणी परिणामपरम्परा वाला कार्यसिद्धियों से (ही) जाना जाता है।

टिप्पणी- 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. इस पद्य में दुर्योधन के कार्यों की समानता विधाता के कार्यों से करने के कारण 'उपमा' अलङ्कार है। 5. 'शिष् धातु से णिच् प्रत्यय और कर्म अर्थ में 'क्त' प्रत्यय लगकर स्त्रीलिङ्ग बहुवचन में 'शेषिताः' पद सिद्ध होता है।

21. न तेन सज्यं क्वचिदुद्यतं धनुः कृतं न वा कोपविजिह्ममाननम्।
      गुणानुरागेण शिरोभिरुह्यते नराधिपैर्माल्यमिवास्य शासनम्।।

अन्वय - तेन क्वचित् सज्यं धनुः न उद्यतम्, आननं वा कोपविजिह्यं न कृतम्। नराधिपैः अस्य शासनं गुणानुरागेण माल्यम् इव शिरोभिः उह्यते।

शब्दार्थ - तेन = उस दुर्योधन के द्वारा, क्वचित् = कहीं पर भी, सज्यंधनु = प्रत्यञ्चा (डोरी) से युक्त धनुष, न उद्यतम् = नहीं उठाया गया. न कृतं = नहीं किया गया, कोपविजिह्यम् = क्रोध के कारण विकृत, आननम् = मुख को, गुणानुरागेण = गुणों के प्रेम से, शिरोभिः उह्यते = शिर के द्वारा धारण किया जाता है, नराधिपैः = राजाओं के द्वारा, माल्यम् इव = माला के समान, अस्य शासनम् = इस दुर्योधन की आज्ञा।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - दुर्योधन के मित्र राजाओं की स्थिति के विषय में वनेचर वर्णन कर रहा है कि दुर्योधन को अपनी आज्ञा का पालन करवाने में कोई कठिनाई नहीं होती, प्रत्युत वे शक्तिशाली राजा लोग उसके गुणों से प्रभावित होकर स्वतः उसकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं।

व्याख्या - उस (दुर्योधन) के द्वारा कहीं पर भी चढ़ी हुई प्रत्यञ्चा वाला धनुष नहीं उठाया गया या क्रोध के कारण मुख टेढ़ा नहीं किया गया। राजाओं के द्वारा (उसके दयादाक्षिण्यादि) गुणों के प्रति प्रेम के कारण उसकी आज्ञा को माला के समान शिरोधार्य किया जाता है।

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. इस श्लोक में 'माल्यम् इव' यह अंश 'दुर्योधन की आज्ञा' (शासन) और 'माला' में साधर्म्यवाचक है। अतः यहाँ उपमा अलङ्कार है। 5. 'धन् + उ = 'धनुः"। उक्त कर्म में प्रथमाविभक्ति हुई है। "धनुश्चापौ धन्वशरासनकोदण्डकार्मुकम् इत्यमरः।

22. प्रलीनभूपालमपि स्थिरायति प्रशासदावारिधि मण्डलं भुवः।
     सः चिन्तयत्येव भियस्त्वदेष्यती - रहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता।।

अन्वय - प्रलीनभूपालं स्थिरायति आवारिधि भुवः मण्डलम् प्रशासत् अपि सः त्वदेष्यतीः भियः चिन्तयत्येव। अहो ! बलवद्विरोधिता दुरन्ता।

शब्दार्थ - प्रलीनभूपालम् = विनष्ट हो गये हैं राजा जिसमें ऐसे अर्थात् शत्रुराजाओं से रहित, स्थिरायति = भविष्यकाल में स्थायी रहने वाली, प्रशासत् अपि = भलीभाँति शासन करता हुआ भी आवरिधि = समुद्रपर्यन्त, भुवो मण्डलम् = पृथ्वीमण्डल को, सः = वह दुर्योधन, चिन्तयति एव = सोचता ही रहता है, भिय = विपत्तियों को अथवा भय को, त्वदेष्यती = तुम्हारी ओर से आने वाली. अहो = खेद है, दुरन्ता अनर्थकारी परिणाम वाली या दुःखमय अन्तवाली, बलवद्विरोधिता = बलवानो से विरोध।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - यद्यपि दुर्योधन ने अपने साम्राज्य का पर्याप्त विस्तार एवं सुदृढीकरण कर लिया है, तथापि पाण्डवों की शक्ति का स्मरण करके वह निरन्तर भयभीत रहता है। वनेचर इस श्लोक में यही बात कह रहा है

व्याख्या - शत्रुविहीन, स्थिर भविष्यवाले (तथा) समुद्रपर्यन्त पृथ्वीमण्डल पर शासन करता हुआ भी वह (दुर्योधन) आपकी ओर से आने वाली विपत्तियों को सोचता ही रहता है। अहो ! (आश्चर्य है कि) बलवानों से विरोध बडा ही दुःखान्त होता है।

टिप्पणी - 1. वशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. उपरोक्त श्लोक में 'अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है। इसका लक्षण है "सामन्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते। यन्तु सोऽथन्तिरन्यासः साधर्म्येणेतरेण वा। 5. "भू" शब्दपूर्वक पाल धातु से 'णिच्' प्रत्यय और कर्ता अर्थ मे 'अण्' प्रत्यय लगकर द्वितीयाविभक्ति एकवचन में 'भूपालम्' है।

23. कथाप्रसङ्गेन जनैरुदाहृतादनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रमः।
      तवाभिधानाद् व्यथते नताननः सदुःसहान्मन्त्रपदादिवोरगः॥

अन्वय - कथाप्रसङ्गेन जनै: उदाहृतात् तव अभिधानात् अनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रमः स दुःसहात् मन्त्रपदात् उरगः इव नताननः व्यथते।

शब्दार्थ-  कथाप्रसङ्गेन जनै = (दुर्योधन-पक्ष में) बातचीत के प्रसङ्ग में लोगों के द्वारा, अनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रम. - (दुर्योधन-पक्ष में) इन्द्र के पुत्र अर्जुन के पराक्रम का स्मरण करके, तवाभिधानात् = (दुर्योधन-पक्ष में) आप (युधिष्ठिर) के नाम से, व्यथते दुःखी हो जाता है, नतानन = नीचा मुख = किये हुये, सः वह (दुर्योधन) दुःसहात् = असहनीय, मन्त्रपदात् = मन्त्रों के पदो अर्थात् शब्दों से उरग इव सर्प के समान।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - दुर्योधन अर्जुन के पराक्रम का स्मरण करके नतमस्तक होकर अत्यन्त दुःखी हो उठता है। इस वृतान्त को सुनाते हुए वनेचर युधिष्ठिर के समक्ष उसकी सर्प से उपमा देता है।

व्याख्या - (सर्पविद्या को जानने वाले) श्रेष्ठ विष वैद्यो के द्वारा उच्चारित गरूड एवं वासुकि के नाम वाले अत्यन्त दु सह मन्त्रपदों से विष्णु के पक्षी (गरुड़) के पादप्रहार का स्मरण करके फण नीचे किये हुए सर्प के समान (पारस्परिक) वार्तालाप के प्रसङ्ग में लोगों के द्वारा उच्चारित आप (युधिष्ठिर) के नाम से इन्द्र-पुत्र अर्जुन के पराक्रम का स्मरण करके वह (दुर्योधन) नीचे मुँह करके दुःखी हो जाता है।

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. यहाँ पर पूर्णोपमा अलङ्कार है। 5. विक्रमः (वि + क्रम् + घञ् भावे = विक्रम) 6. अनुस्मृत (अनु + स्मृ + क्त कर्मणि) आखण्डल सूनुविक्रम येन सः अनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रमः (बहुव्रीहि समास )।

24. तदाशु कर्तुं त्वयि जिह्यमुघते विधीयतां तत्र विधेयमुत्तरम्।
       परप्रणीतानि वचांसि चिन्वतां प्रवत्तिसाराः खलु मादृशां गिरः॥

अन्वय - तत् त्वयि जिहां कर्तुम् उद्यते तत्र विधेयम् उत्तरम् आशु विधीयताम्। परप्रणीतानि वचांसि चिन्वतां मादृशा गिर प्रवृत्तिसारा खलु।

शब्दार्थ - तत् = तो कारण से, आशु + शीघ्र, कर्तुम् = करने के लिये, त्वयि जिह्यम् = तुम्हारे प्रति कपट को, उद्यते = उद्यत या तत्पर, विधीयताम् = की जाय, तत्र = उस दुर्योधन के विषय में, विधेयम् = करने योग्य, उत्तरम् = प्रतीकार या प्रतिक्रिया, परप्रणीतानि = दूसरों के द्वारा कही गयी, वचांसि = बातों को, चिन्वताम् = चयन करने वालों का, प्रवृत्तिसारा =  वृत्तान्तमात्र ही है तत्व जिनका ऐसी, खलु = नियमेन के अर्थ, मादृशां = मुझ जैसों की, गिरः = वाणी।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - अब तक दुर्योधन के द्वारा पाण्डवों को पराजित करने के लिए किये जा रहे समस्त कार्यों को युधिष्ठिर से बताने के बाद वनेचर कह रहा है कि ऐसी स्थिति में आप स्वयं यथोचित कार्यवाही शीघ्र करें।

व्याख्या- तो आपके प्रति छल करने के लिए तत्पर उस (दुर्योधन) के प्रति करने योग्य प्रतिक्रिया (आप द्वारा) शीघ्र की जाये। दूसरे लोगों के द्वारा कहे गये वचनों का सङ्ग्रह करने वाले मुझ जैसों की बातें तो वृत्तान्तमात्रपर्यवसायिनी होती हैं।

टिप्पणी- 1. वशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4 अर्थान्तरन्यास नामक अलङ्कार है 5. मा + दृश् + क्विन् - मादृक् 6. उद् + तृ + अप् = उत्तरम्  - जवाबी कार्यवाही।

25. निशम्य सिद्धिं द्विषतामपाकृती स्ततस्ततस्त्या बिनियन्तुमक्षमा।
नृपस्य मन्युव्यवसायदीपिनी रुदाजहार द्रुपदात्मजा गिरः॥

अन्वय- ततः द्विषतां सिद्धिं निशम्य ततस्त्या अपाकृती विनियन्तुमक्षमा द्रपदात्मजा नृपस्य मन्युव्यवसायदीपिनी गिर उदाजहार।

शब्दार्थ - निशम्य = सुनकर, सिद्धिम् = सफलता को, द्विषताम् = शत्रुओं की, अपाकृती= अपकारों को, ततस्त्या: = उनसे प्राप्त अर्थात् शत्रुओं से मिली हुई. विनियन्तम् = रोक पाने में या सहन करने में, अक्षमा = असमर्थ, नृपस्य = राजा (युधिष्ठिर) के, मन्युब्यवसायदीपिनी = क्रोध और उद्योग को बढ़ाने वाली, गिर उदाहार = वाणी बोली, द्रुपदात्मजा = द्रोपदी।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - युधिष्ठिर के मुख से दुर्योधन की प्रगतिशीलता का वर्णन सुनकर उसके दुराचारों से अपमानित द्रौपदी ने युधिष्ठिर के क्रोध को उद्दीप्त करने वाली उत्तेजक वाणी का कथन करना प्रारम्भ किया जिससे वे दुर्योधन से शीघ्रातिशीघ्र बदला लें।

व्याख्या - उसके बाद (दुर्योधनादि) शत्रुओं की सफलता को सुनकर, उन (शत्रुओं) से प्राप्त (वनवासादि) अपमानों को सहन करने में असमर्थ दुपद की पुत्री (द्रौपदी) ने राजा (युधिष्ठिर) के क्रोध और उद्यम को उद्दीपित करने वाली बातें कहीं।

टिप्पणी- 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. अनुप्रास अलङ्कार 5. वि + अब + षो+घञ भावे = व्यवसाय।

26. भवादृशेषु प्रमदाजनोदितं भवत्यधिक्षेप इवानुशासनम्।
तथापि वक्तुं व्यवसाययन्ति मां निरस्तनारीसमयाः दुराधयः।।

अन्वय - भवादृशेषु प्रमदाजनोदितम् अनुशासनम् अधिक्षेप इव भवति, तथापि निरस्तनारीसमया दुराधयः मां वक्तुं व्यवसाययन्ति।

शब्दार्थ - भवादृशेषु = आप जैसे जानकार लोगों के विषय में, प्रमदाजनोदित्तम् = स्त्रीजनों के द्वारा कहा गया, भवति = होता है, अधिक्षेप-इव = तिरस्कार या अपमान के समान, अनुशासनम् = उपदेशवचन, तथापि फिर भी, वक्तुम् = कहने के लिये, व्यवसाययन्ति = प्रेरित कर रही हैं, माम् = मुझ द्रौपदी को, निरस्तनारीसमया = स्त्रियों की शालीनता (उनके आचार) को नष्ट कर देने वाली, दुराधयः = दुष्ट मनोव्यथाएँ।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - द्रौपदी यह अच्छी तरह जानती है कि धर्मराज युधिष्ठिर एक ज्ञानी पुरुष हैं, स्त्री के द्वारा उनको कर्तव्य-अकर्तव्य का उपदेश देना उनका तिरस्कार करना है, इसीलिए वह कह रही है कि आप मेरे मन की व्यथा को समझें। मेरी विकृत मनोव्यथाएँ ही मुझे आपके समक्ष ऐसा कहने के लिए बाध्य कर रही हैं।

व्याख्या- आप जैसे (बुद्धिमान) पुरुषों के विषय में स्त्रीजनों द्वारा कहा गया उपदेशपरक वचन अपमान करने के समान होता है, फिर भी स्त्रीजनोचित शालीनता को नष्ट कर देने वाली दुष्ट मानसिक व्यथाएँ मुझे बोलने के लिए प्रेरित कर रही हैं।

टिप्पणी -1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भीरीति 4. इस श्लोक में पूर्वार्द्ध में उपमा अलङ्कार तथा उत्तरार्द्ध में वाक्यार्थहेतुक 'काव्यलिङ्ग' अलङ्कार हैं। 5. वृद' का कर्माणि उदितम् 6. 'अनु' उपसर्गपूर्वक शास' धातु से भाव अर्थ में 'ल्युट' प्रत्यय लगकर 'अनुशासनम्' पद निष्पन्न होता है।

27. आखण्डलतुल्यधामभिश्चिरं धृता भूपतिभिः स्ववंशजैः।
त्वयात्महस्तेन मही मदच्युता मताङ्गजेन स्रगिवापवर्जिता॥

अन्वय - आखण्डलतुल्यधामभिः स्ववंशजै भूपतिभिः चिरम् अखण्डं धृता मही त्वया मदच्युता मतङ्गजेन स्रगिव आत्महस्तेन अपवर्जिता।

शब्दार्थ - आखण्डमातुल्यधामभिः = इन्द्र के समान तेज वाले, चिरम् = सुदीर्घकाल तक, धृता = धारण की गयी. भूपतिभिः = राजाओं के द्वारा, स्ववंशजैः = अपने वंश में जात अर्थात् चन्द्रवंशीय राजाओं के इतिहास में कभी कोई ऐसा राजा उत्पन्न नहीं हुआ जो अपने राज्य की रक्षा न कर पाया हो, अपितु इन्द्र के तुल्य सभी प्रतापी राजा हुए थे और अपने राज्य तथा कुल की रक्षा में समर्थ थे, त्वया = तुम्हारे द्वारा, आत्महस्तेन = अपने हाथ से, मही = पृथ्वी, मदच्युता =  मदजल को बहाने वाले, मतङ्गजेन = हाथी के द्वारा, स्रकइव =  माला के समान, अपवर्जिता = खो दी गयी।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - युधिष्ठिर के क्रोध को उददीप्त करने के लिए द्रौपदी उन्हें उनके पूर्वजो की याद दिलाती हुई कहती है कि जिस राज्य को आपने सहज में ही खो दिया, उसके लिए आपके पूर्वजों ने कितना त्याग किया था और नाना प्रकार के कष्ट उठाते हुए भी उन्होंने अपने राज्य की रक्षा की थी। 

व्याख्या - इन्द्र के समान तेजस्वी (तुम्हारे) अपने वंश में उत्पन्न हुए राजाओं के द्वारा विरकाल तक अविच्छिन्न रूप से धारण की गयी पृथ्वी, मदसावी हाथी के द्वारा अपनी (ही) सूँड से गिरा दी गयी, पुष्पमाला के समान तुम्हारे द्वारा अपने हाथ से खो दी गयी।

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. उपमा अलङ्कार 5. 'धृ' धातु से कर्म अर्थ में क्त प्रत्यय तथा स्त्रीलिङ्ग मे 'टाप' प्रत्यय लगकर 'धृता पद बना है।

28. गुणानुरक्तामनुरक्तसाधनः कुलाभिमानी कुलजा नराधिपः।
परैस्त्वदन्यः क इवापहारयेन्मनोरमामात्मवधूमिव श्रियम्॥

अन्वय- अनुरक्तसाधन: कुलाभिमानी त्वत् अन्य क इव नराधिप गुणानुरक्ता कुलजा मनोरमाम् आत्मवधूम इव श्रियं परैः अपहारयेत्?

शब्दार्थ - गुणानुरक्ताम् = वधूपक्ष में इसका अर्थ है, अनुरक्तसाधन = अनुकूल साधनो वाला, कुलाभिमानी = अपने क्षत्रियकुल का अभिमान रखने वाला, कुलजा = वधुपक्ष में 'उत्तमवंश में उत्पन्न  राजलक्ष्मी, नराधिप = राजा, परै = वधूपक्ष में, त्वत् अन्यः कः = तुमसे भिन्न कौन सा?, अपहारयेत् = अपहरण करवायेगा, मनोरमाम् = रमणीय, आत्मवधूमिव = अपनी पत्नी के समान, श्रियम = राज्यलक्ष्मी को।

सन्दर्भ -प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - एक आप ही हैं जिन्होंने अपनी कुलक्रमागत राजलक्ष्मी तथा कुलीन वंशोत्पन्न अपनी प्रियतमा दोनों को अनायास दूसरों के द्वारा अपहृत करा दिया है। वस्तुतः ऐसी दशा को प्राप्त होने में या तो लक्ष्मी की चञ्चलता अथवा प्रियतमा की चपलता के कारण होती है. परन्तु यहाँ युधिष्ठिर की प्रयत्न पराङ्मुखता ही कारण है। इसी बात को द्रौपदी अग्रिम श्लोक में कह रही कि -

व्याख्या - अनुकूल सहायको वाला (तथा अपने) वंश का अभियान रखने वाला आपके अतिरिक्त ऐसा कौन राजा है, जो गुणो अनुरक्त, कुलीन एवं मनोहरिणी अपनी पत्नी के समान (सन्धि, विग्रह आदि) गुणों में अनुरक्त एवं कुलक्रम से आयी हुयी मनोहारिणी (अपनी पत्नी राजलक्ष्मी को (भी) दूसरों से अपहृत कराता है?

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी गुण 4. प्रस्तुत श्लोक में 'आत्मवधू' उपमेय और 'श्री' उपमान का समानधर्म से कथन है। 'इव' उपमावाचक शब्द है। इस प्रकार इसमे पूर्णोपमा अलङ्कार है! इसका लक्षण है "साम्यं वाच्यमवैधर्म्य वाक्यैक्य उपमा द्वयोः 5. अपहारयेत् अप उपसर्गपूर्वक ह्र धातु से 'विच्' प्रत्यय लगकर विधिलिङ् लकार प्रथमपुरुष एकवचन में 'अपहारयेत पद बनेगा।

26. अबन्ध्यकोपस्य विहन्तुरापदां भवन्ति वश्याः स्वयमेव देहिनः।
अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः॥

अन्वय - अवन्ध्यकोपस्य आपदां विहन्तु देहिनः स्वयमेव वश्याः भवन्ति अमर्षशून्येन जन्तुना जातहार्देन जनस्य आदर न विद्विषा दरः न।

शब्दार्थ -अबन्ध्यकोपस्य = सफल क्रोध वाले, विहन्तुः = विनाश करने वाले का, आपदाम् = आपत्तियों का, वश्याः भवन्ति = अधीन हो जाते हैं, स्वयमेव = अपने आप, देहिनः = प्राणी लोग, अमर्षशून्येन जन्तुना = क्रोधरहित प्राणी के द्वारा, जनस्य = लोगों का, जातहार्देन = प्रेम करने पर अथवा मित्र बनने पर, आदर न = आदर नहीं होता, विद्विषा दरः न = (विद्विषा सता) शत्रु होने पर (लोगों को) भय नहीं रहता।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - द्रौपदी का कहना है कि जो लोग अपने ऊपर किये गये अत्याचारों को चुपचाप बिना क्रुद्ध हुए सहन कर लेते हैं और अत्याचारी का प्रतीकार नहीं करते, वे अनादर का पात्र बन जाते हैं।

व्याख्या - सफल क्रोध वाले (और) विपत्तियों को विनष्ट कर देने वाले (मनुष्य) के सभी प्राणी स्वयं ही वशीभूत हो जाते हैं। क्रोध रहित व्यक्ति के मित्र बनने पर न तो उसे लोगो का आदर प्राप्त होता है (और) न ही शत्रु बन जाने पर (लोगों को उससे) भय ही होता है।

टिप्पणी- 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. यहाँ अनुप्रास तथा 'समङ्गश्लेष' अलङ्कार है। 5. बन्ध' शब्द में 'तत्र साधु' सूत्र से यत् प्रत्यय (बहुव्रीहि समास ) 6. कुप, क्रोधे' से भाव अर्थ में घञ' प्रत्यय होकर कोप' पद बनता है।

30. परिभ्रमैल्लोहितचन्दनोचितः पदातिरन्तर्गिरि रेणुरूषितः।
महारथः सत्यधनस्य मानसं दुनोति नो कच्चिदयं वृकोदरः॥

अन्वय - लोहितचन्द्रनोचित महास्थ पदातिः अन्तर्गिरि परिभ्रमन् रेणुरूषित अयं वृकोदर सत्यधनस्य मानसं कच्चित् नो दुनोति।

शब्दार्थ - परिभ्रमन् = विचरण करते हुये, लोहितचन्दनोचितः = अपने शरीर में लाल चन्दन का लेप करने वाले, पदाति = पैदल, अन्तर्गिरि = पर्वतीय प्रदेशों में, रेणुरुषित = धूल-धूषित, महारथ = महारथी रथ से विचरण करने वाला, सत्यधनस्य = सत्य है धन जिसका ऐसे (आपके), मानसम् = मन को दुनोति = सन्तप्त करता या पीड़ित करता, नो = 'न' के अर्थ में प्रयुक्त 'नो' भी एक निषेधार्थक अव्यय है, कच्चित् = इस अव्ययपद के अर्थ के विषय में अनेक हिन्दी टीकाकार भ्रमित हुए हैं, यहाँ पर इसका अर्थ होगा कि मैं मानती हूँ या मुझे प्रतीत होता है। वृकोदर = भीमसेन।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - जगल में दर-दर की ठोकरें खाते हुए आपके भाई किस दुर्दशा को प्राप्त हो गये हैं? आगे अपने मर्मस्पर्शी वाक्यों के द्वारा उसी का स्मरण कराती हुई द्रौपदी पहले भीम की दयनीय अवस्था का वर्णन कर रही हैं।

व्याख्या - (पहले) लाल चन्दन का लेप करने वाले, महारथी, (किन्तु अब) पैदल (ही) पर्वतों पर (मारे-मारे) घूमते हुए धूलिधूसरित यह भीम, मुझे लगता है, सत्यसन्ध (आप) के मन को व्यथित नहीं करता।

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. इस श्लोक में परिकर नामक अलङ्कार है, जिसका लक्षण - “विशेषणैर्यत्साकूतैरूक्तिः परिकरस्तु सः 5. उच्, समवाये धातु से कर्म अर्थ में 'क्त' प्रत्यय लगकर 'उचितम्' पद बनता है।

31. विजित्य यः प्राज्यमयच्छदुत्तरान् कुरूनकुप्यं वसु वासवोपमः।
ख वल्कवासांसि तवाधुनाहरन् करोति मन्युं न कथं धनञ्जयः॥

अन्वय - वासवोपमः य. धनञ्जय उत्तरान् कुरून् विजित्य प्राज्यम् अकुप्यं वसु अयच्छत्, स अधुना वल्कवासासि आहरन् तव मन्यु कथं न करोति?

शब्दार्थ - विजित्य = जीतकर, प्राज्यम् प्रचुर या बहुत अधिक, अयच्छत् = प्रदान किया था, उत्तरान् कुरून् = मेरू पर्वत के उत्तर में स्थित उत्तरकुरू नामक देश को, अकुप्यम् = स्वर्ण और रजतरूपी सम्पत्ति, वसु = धन को, वासवोपमः = इन्द्र के समान पराक्रम वाले, वल्कवासांसि = वल्कल वस्त्रों को, आधुना = इस समय, आहरन् = लाता हुआ या लाने वाला, कथ न करोति = कैसे नहीं (उत्पन्न) करता?, तव मन्युम = आपके क्रोध को यः धनञ्जयः = जो अर्जुन (जिस अर्जुन ने)।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - भीम की दुर्दशा का वर्णन करके अब द्रौपदी अर्जुन की दयनीय स्थिति का चित्रण करती हुई कह रही हैं-

व्याख्या - इन्द्र के समान पराक्रम वाले जिस अर्जुन ने उत्तर-कुरूदेशों को जीतकर प्रभूत स्वर्ण एवं रजतरूपी सम्पदा आपको प्रदान किया था, वही (अर्जुन) अब आपके लिए वृक्ष की छाल के वस्त्रों को लाते हुये (आपके) क्रोध को कैसे नहीं उत्पन्न करता?

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. यहाँ पर 'अनुप्रास' अलङ्कार है। 5. 'वि' उपसर्गपूर्वक जि, जये धातु से ल्यप् प्रत्यय लगकर विजित्य पद बनता है। 6. 'वस्' धातु करण अर्थ में 'असुन' प्रत्यय लगकर वासस् पद होता है।

32. वनान्तशय्याकठिनीकृताकृती कचाचितौ विष्वगिवागजौ गजौ।
कथं त्वमेतौ धृतिसंयमौ यमौ विलोकयन्नुत्सहसे न बाधितुम्।।

अन्वय - वनान्तशय्याकठिनीकृती विष्वक कचाचितौ अगजो गजा इव एवौ यमौ विलोकयन् त्व धृतिसंयमौ बाधितु कथं न उत्सहसे?

शब्दार्थ - वनान्तशय्याकठिनीकृताकृती = वनभूमि रूपी शय्या (पर सोने) से कठोर हो गये शरीर वाले, कचाचितौ = केशसङ्कुल बालों से व्याप्त, विष्वक् = सब ओर, अगजी गजौ इव = पर्वत में (उत्पन्न होकर) रहने वाले दो हाथियों के समान, त्वम् = तुम, धृतिसंयमौ = धैर्य और संयम को, एतौ यमौ = इन दोनों जुड़वाँ भाइयों को, विलोकयन् = देखते हुये, कथं न उत्सहसे = कैसे नहीं उत्साहित होते?, बाधितुम = त्यागने के लिए।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग- उपरोक्त श्लोक में द्रोपदी छोटे भाइयों नकुल और सहदेव की दुर्दशा का निरूपण करती हुई कहती हैं।

व्याख्या - वनभूमि-रूपी शय्या के कारण कठोर (हुई) शरीर वाले, सब ओर बालो से ढके हुए दो पर्वतीय हाथियों के समान (दृश्यमान) इन दोनों जुड़वे भाइयों (नकुल व सहदेव) को देखते हुए तुम (अपने) धैर्य और संयम को त्यागने के लिए क्यों नहीं उद्यत होते?

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. यहाँ पर 'अनुप्रास तथा 'यमक' अलङ्कार है। 5. नञ् + गम् + ऽप्रत्ययः कर्तरि।

33. पुराधिरूढः शयनं महाधनं विबोध्यसे यः स्तुतिगीतिमङ्गलैः।
अदभदर्भामधिशय्य स स्थल जहासि निद्रामशिवैः शिवारूतैः॥

अन्वय - यः (भवान्) पुरा महाधन शयनम् अधिरूढ (सन्) स्तुतिगीतिमङ्गलैः विबोध्यसे, सः अदवदर्भा स्थलीम अधिशय्य अशिवः शिवारुतै निद्रां जहासि।

शब्दार्थ - पुरा = पहले, पूर्वसमय में, अधिरूढः = सोये हुए, शयनं = शय्या पर, महाधनम् = बहुमूल्य, विबोध्यसे = जगाये जाते थे, यः = जो, स्तुतिगीतिमङ्गलैः = स्तुति और गीत रूपी माङ्गलिक कृत्यों के द्वारा, अदब्रदर्भाम् = कुशो से व्याप्त, अधिशय्य = सोकर, स्थलीम् = (अकृत्रिम) भूमि में, निंद्रा जहासि = निद्रा को त्यागते हो, अशिवैः शिवारुतै = श्रृंगालियों के अमंगल सूचक शब्दों से (भयभीत कर देने वाले शब्दों या ध्वनियों से)।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - राजा युधिष्ठिर की शयनास्थिति अर्थात् शयन की दुर्दशा का वर्णन करते हुए उनके सोने तथा जागने का चित्रण प्रस्तुत करते हुए द्रौपदी कहती हैं-

व्याख्या - जो (आप) पहले बहुमूल्य शय्या पर लेटे हुए माङ्गलिक स्तुतियों और गीतो के द्वारा जगाये जाते थे. वहीं (आप अब) कुशों से आकीर्ण (वन) भूमि पर सोते हुए श्रृंगालियों के अमङ्गलसूचक शब्दों से (अपनी नींद तोडते हैं।

टिप्पणी-  1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. यहाँ पर विषय अलङ्कार है। इसका लक्षण इस प्रकार है। "क्वचिद्यदतिवैधर्म्यान श्लेषो घटनामियात्। कर्तुः क्रियाफलावाप्तिर्नैवानर्थश्च यद्भवेत्॥ गुणक्रियाभ्यां कार्यस्य कारणस्य गुणक्रिये। क्रमेण च विरुद्धे यत्स एष विषमो मतः॥ 5. गै धातु से भाव अर्थ में क्तिन् प्रत्यय लगकर प्रथमा बहुवचन में 'गीतय पद बनता है।

34. द्विषन्निमित्ता यदियं दशा ततः समूलमुन्मूलयतीव मे मनः।
परैरपर्थ्यासितवीर्य्यसम्पदां पराभवोऽप्युत्सव एव मानिनाम्॥

अन्वय - यत् इयं दशा द्विषन्निमित्ता, तत मे मनः समूलम् उन्मूलयति इव परे अपर्णासितवीर्य्यसम्पदां मानिनां पराभवः अपि उत्सव एव।

शब्दार्थ - द्विषन्निमित्ता = शत्रुओं के कारण, यत् = चूँकि, इयं दशा - यह अवस्था, ततः = इसलिए, समूलम् = जड सहित, उन्मूलयति इव उखड़ा सा जा रहा है, मे मनः = मेरा मन, परैः = शत्रुओं के द्वारा, अपर्थ्यासितवीर्य्यसम्पदाम् = अपर्यासित या अविनष्ट शौर्य-सम्पत्ति वाले, पराभव अपि पराजय भी, उत्सव एवं उत्सव या हर्ष ही है. मानिनाम् = मनस्वी पुरुषों के लिए।

सन्दर्भ- प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - सम्पदा अर्थात् धन-सम्पत्ति तथा विपति तो आती-जाती रहती है, अत इनका रोष (दुख) क्यों रोया जाये? इस तर्क को मन में रखकर द्रौपदी कहती हैं -

व्याख्या -चूँकि (आपकी) यह दुर्दशा शत्रुओं के कारण हुई है, इसीलिए मेरा मन समूल (जडसहित, सम्पूर्ण रूप से) उखड़ा सा जा रहा है. (क्योंकि) शत्रुओ के द्वारा विनिष्ट न की गयी पराक्रमरूपी सम्पत्ति वाले स्वाभिमानियों की पराजय भी उत्सवरूप ही है।

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. यहाँ पर परैरपर्यासित मानिनाम में 'अर्थान्तरन्यास अलडकार है, 'इव' शब्द के द्वारा मन के उन्मूलन की सम्भावना होने से 'उत्प्रेक्षा' अलङ्कार भी है, साथ ही पूर्वार्द्ध में मू' वर्ण तथा उत्तरार्द्ध में र वर्ण की आवृत्ति होने से 'अनुप्रास अलङ्कार भी है। 5. वीरस्य भावः कर्म वा वीर्यम् (वीर + यत्) तस्य (वीर्यस्य) सम्पत् इति वीर्यसम्पत् (षष्ठीतत्पुरुषः समासः )।

35. विहाय शान्तिं नृप धाम तत्पुनः प्रसीद सन्धेहि वधाय विद्विषाम्।
ब्रजन्ति शत्रूनवधूय निःस्पृहाः शमेन सिद्धिं मुनयो न भूभृतः

अन्वय - नृप! शान्ति विहाय विद्विषा वधाय प्रसीद तत् धाम पुनः सन्धेहि। निःस्पृहाः मुनयः शत्रून् अवधूय शमेन सिद्धि व्रजन्ति भूभृतः न।

शब्दार्थ - शान्ति विहाय = शान्ति को छोड़कर, नृप। = हे राजन ! तत धाम = उस तेज को, पुन: = फिर से, प्रसीद = प्रसन्न हो जाइये, सन्धहि = धारण कीजिये, विद्विषां वधाय = शत्रुओं के वध के लिए, सिद्धि व्रजन्ति = सिद्धि को प्राप्त होते हैं, शत्रून् = शत्रुओं को, अवधूय = पराजित कर के, निःस्पृहा मुनयः = निष्काम ऋषिगण या तपस्वी लोग, शमेन = शान्ति से, भूभृतः न = राजा लोग नहीं।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - शान्ति और सहिष्णुता का मार्ग मुनियों का है. राजाओं का नहीं। अतः उसे त्याग कर आप क्षत्रियोचित मार्ग अपनाइये। इसी बात को द्रौपदी स्पष्ट करती हैं -

व्याख्या - हे राजन्। शान्ति को छोड़कर, शत्रुओं के वध के लिए कृपया (अपने) उस (जगद्विख्यात क्षत्रिय) तेज को पुनः धारण कीजिए। निष्काम मुनिलोग (हि काम, क्रोध लोभ इत्यादि) शत्रुओं को परास्त करके शान्तिमार्ग से सिद्धि प्राप्त करते हैं, राजा लोग नहीं।

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. यहाँ अर्थान्तरन्यास एव 'अनुप्रास' अलङ्कारों की आभा है।

36. पुरःसरा धामवतां यशोधनाः सुदुःसहं प्राप्य निकारमीदृशम्।
      भवादृशाश्चेदधिकुर्वते रतिं निराश्रया हन्त ! हता मनस्विता॥

अन्वय - धामवता पुर सराः यशोधनाः भवादृशाः चेत् ईदृशं सुदुःसहं निकार प्राप्य रतिम अधिकुर्वते हन्त ! मनस्विता निराश्रया (सती) हता।

शब्दार्थ - पुरःसराः = अग्रणी, धामवताम् = तेजस्वियों में, यशोधना = यशरूपी धन वाले, सुदु सहम् अत्यधिक दुःसह या असहनीय, प्राप्य = प्राप्य करके या सहन करके, निकारम् = अपमान को, ईदृशम् = इस प्रकार के, भवादृशा = आप जैसे लोग, चेत् रतिम् अधिकुर्वते = यदि सन्तोष कर लेते हैं, निराश्रया = आश्रयरहित होकर, हन्त। = हाय! (दुःख) है, हता = विनष्ट हो गयी, मनस्विता = स्वाभिमानिता (आत्मसम्मान की भावना)।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - द्रौपदी पाण्डु पुत्रों से कहती है कि आप अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए आप दुर्योधन से युद्ध कीजिए, इसी विचार को द्रौपदी इस प्रकार व्यक्त करती है -

व्याख्या - तेजस्वियों में अग्रणी (तथा) यशरूपी धन वाले आप जैसे लोग यदि इस प्रकार के अत्यन्त दुःसह अपमान को पाकर (भी) सन्तुष्ट बने रहते हैं, तब तो 'स्वाभिमानिता' (ही) बेसहारा होकर नष्ट हो गयी।

टिप्पणी - 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति 4. 'ईश' आदेश होकर ईश् + दृश् + कञ = ईदद्दश का द्वितीया एकवचन में ईदृशम् रूप निष्पन्न होता है। इदमिव दृश्यमानाः इति ईदृश तम्।

37. अथ क्षमामेव निरस्तविक्रमश्चिराय पर्येषि सुखस्य साधनम्।
विहाय लक्ष्मीपतिलक्ष्मकार्मुकम् जटाधरः सञ्जुहुधीह पावकम्॥

अन्वय - अथ निरस्तविक्रमः क्षमाम् एव चिरायः सुखस्य साधनं पर्येषि लक्ष्मीपति-लक्ष्मकार्मुकम् विहाय जटाधर सन् इह पावक जुहुधि।

 

शब्दार्थ - अथ = और यदि, क्षमाम् एव = क्षमा या शान्ति को ही, निरस्तविक्रमः=  पराक्रम को छोडकर या पराक्रम का परित्याग करके, चिराय = चिरकाल के लिये, पर्येषि = समझते हो या मानते हो, सुखस्य साधनम् = सुख का साधन या कारण, विहाय = त्यागकर, लक्ष्मीपतिलक्ष्म =राजचिह्न स्वरूप,  कार्मुकम् = धनुष को, जटाधरः = जटाधारी होकर या तपस्वी बनकर, इह = यहाँ (इसी वन में), पावकम् = अग्नि को।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - क्षत्रिय का धर्म है अपनी मर्यादा और वैभव की रक्षा के रक्षा के लिए वीरतापूर्वक युद्ध करना। शान्तिमार्ग का अवलम्बन वह भी अपमान सहन करते हुए, कदापि उचित नहीं है। युधिष्ठिर को अपनी इच्छानुरूप प्रेरित करने के लिए विविध तर्कों का आश्रय द्रौपदी ने लिया। इतने पर भी युधिष्ठिर के मनोभावों में कोई विकार न आने पर द्रौपदी का मन खींझ गया। अब वह व्यङ्ग्य के द्वारा मानो युधिष्ठिर के पुरुषार्थ को चुनौती दे रही हैं -

व्याख्या - और यदि पराक्रम का परित्याग करके आप क्षमा को ही चिरकाल के लिए सुख का साधन मानते हैं तो राजचिह्न (रूप) धनुष को छोड़कर (और) जटाधारी बनकर यही (वन में) हवन करते रहें।

टिप्पणी- 1. वंशस्थ छन्द 2. प्रसाद गुण 3. वैदर्भी रीति।

38. विधिसमयनियोगाद्दीप्तिसंहारजिह्यं
      शिथिलवसुमगाधे मग्नमापत्पयोधौ।
      रिपुतिमिरमुदस्योदीयमानं दिनादौ
      दिनकृतमिव लक्ष्मीस्त्वां समभ्येतु भूयः॥

अन्वय - विधिसमयनियोगाद, दीप्तिसंहारजिह्यं, शिथिलवसुम्, अगाधे आपत्पयोधौ मग्नं दिनादौ रिपुतिमिरमुदस्य उदीयमान दिनकृतमिव त्वा लक्ष्मीः भूयः समभ्येतु।

शब्दार्थ - विधिसमयनियोगाद = विधाता के द्वारा (कालनियोजन के कारण), दीप्तिसंहार - जिह्यम = प्रकाशक्षीण हो जाने से मन्द पड़े हुए (सूर्य के पक्ष में), शिथिलवसुम् = क्षीण किरणों वाले, अगाधे = अत्यन्त गहरे, आपत्पयोधौ मग्नम् = विपत्ति के समान प्रतीयमान समुद्र में, रिपुतिमिरम् = शत्रुसदृश अन्धकार को, उदीयमानम् = उदित होते हुए. उगते हुए, दिनादी = प्रभातकाल में, दिनकृतमिव = सूर्य के समान, त्वाम् = आपको, लक्ष्मी = (सूर्य पक्ष में) शोभा. समभ्येतु = भलीभाँति प्राप्त हो, भूयः = फिर से (पुनः)।

सन्दर्भ - प्रस्तुतः श्लोक भारविः विरचितः 'किरातार्जुनीयम् महाकाव्य प्रथम सर्गात अवतरित।

प्रसंग - यहाँ सर्गान्त में द्रौपदी शुभकामना के साथ अपने कथन का उपसंहार करते हुए कहती हैं -

व्याख्या - विधाता के (द्वारा किए गये) कालनियोजन के कारण, प्रकाश सिमट जाने से कान्तिहीन, क्षीण किरणों वाले (तथा) विपत्तिसदृश अथाह समुद्र में डूबे हुए (और फिर) प्रभातकाल में शत्रुसदृश अन्धकार का भेदन करके उगते हुए सूर्य के समान भाग्य और कालनिर्धारण के कारण प्रतापहीन होने से खिन्न, निर्धन (तथा) समुद्रसदृश गहरी विपत्ति में डूबे हुये (और) दिन फिरते ही अन्धकारसदृश शत्रु को विनष्ट करके ऊपर उठते हुए आपको लक्ष्मी पुनः प्राप्त हो।

टिप्पणी - 1. यहाँ पर मालिनी छन्द का प्रयोग है इसका लक्षण इस प्रकार है- "ननमययुते- यं मालिनी भोगिलोकैः 2. प्रसाद गुण 3 वैदर्भी रीति 4. यहाँ 'पूर्णोपमा अलडकार है। 5. मग्नम् = डूबे हुए (मस्ज् + क्तः द्वितीया एकवचन का रूप)।


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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- भूगोल एवं खगोल विषयों का अन्तः सम्बन्ध बताते हुए, इसके क्रमिक विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- भारत का सभ्यता सम्बन्धी एक लम्बा इतिहास रहा है, इस सन्दर्भ में विज्ञान, गणित और चिकित्सा के क्षेत्र में प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण योगदानों पर प्रकाश डालिए।
  4. प्रश्न- निम्नलिखित आचार्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये - 1. कौटिल्य (चाणक्य), 2. आर्यभट्ट, 3. वाराहमिहिर, 4. ब्रह्मगुप्त, 5. कालिदास, 6. धन्वन्तरि, 7. भाष्कराचार्य।
  5. प्रश्न- ज्योतिष तथा वास्तु शास्त्र का संक्षिप्त परिचय देते हुए दोनों शास्त्रों के परस्पर सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
  6. प्रश्न- 'योग' के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करते हुए, योग सम्बन्धी प्राचीन परिभाषाओं पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- 'आयुर्वेद' पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  8. प्रश्न- कौटिलीय अर्थशास्त्र लोक-व्यवहार, राजनीति तथा दण्ड-विधान सम्बन्धी ज्ञान का व्यावहारिक चित्रण है, स्पष्ट कीजिए।
  9. प्रश्न- प्राचीन भारतीय संगीत के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  10. प्रश्न- आस्तिक एवं नास्तिक भारतीय दर्शनों के नाम लिखिये।
  11. प्रश्न- भारतीय षड् दर्शनों के नाम व उनके प्रवर्तक आचार्यों के नाम लिखिये।
  12. प्रश्न- मानचित्र कला के विकास में योगदान देने वाले प्राचीन भूगोलवेत्ताओं के नाम बताइये।
  13. प्रश्न- भूगोल एवं खगोल शब्दों का प्रयोग सर्वप्रथम कहाँ मिलता है?
  14. प्रश्न- ऋतुओं का सर्वप्रथम ज्ञान कहाँ से प्राप्त होता है?
  15. प्रश्न- पौराणिक युग में भारतीय विद्वान ने विश्व को सात द्वीपों में विभाजित किया था, जिनका वास्तविक स्थान क्या है?
  16. प्रश्न- न्यूटन से कई शताब्दी पूर्व किसने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त बताया?
  17. प्रश्न- प्राचीन भारतीय गणितज्ञ कौन हैं, जिसने रेखागणित सम्बन्धी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया?
  18. प्रश्न- गणित के त्रिकोणमिति (Trigonometry) के सिद्धान्त सूत्र को प्रतिपादित करने वाले प्रथम गणितज्ञ का नाम बताइये।
  19. प्रश्न- 'गणित सार संग्रह' के लेखक कौन हैं?
  20. प्रश्न- 'गणित कौमुदी' तथा 'बीजगणित वातांश' ग्रन्थों के लेखक कौन हैं?
  21. प्रश्न- 'ज्योतिष के स्वरूप का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- वास्तुशास्त्र का ज्योतिष से क्या संबंध है?
  23. प्रश्न- त्रिस्कन्ध' किसे कहा जाता है?
  24. प्रश्न- 'योगदर्शन' के प्रणेता कौन हैं? योगदर्शन के आधार ग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  25. प्रश्न- क्रियायोग' किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- 'अष्टाङ्ग योग' क्या है? संक्षेप में बताइये।
  27. प्रश्न- 'अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस' पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  28. प्रश्न- आयुर्वेद का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  29. प्रश्न- आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्तों के नाम बताइये।
  30. प्रश्न- 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' का सामान्य परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- काव्य क्या है? अर्थात् काव्य की परिभाषा लिखिये।
  32. प्रश्न- काव्य का ऐतिहासिक परिचय दीजिए।
  33. प्रश्न- संस्कृत व्याकरण का इतिहास क्या है?
  34. प्रश्न- संस्कृत शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई? एवं संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थ और उनके रचनाकारों के नाम बताइये।
  35. प्रश्न- कालिदास की जन्मभूमि एवं निवास स्थान का परिचय दीजिए।
  36. प्रश्न- महाकवि कालिदास की कृतियों का उल्लेख कर महाकाव्यों पर प्रकाश डालिए।
  37. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्य शैली पर प्रकाश डालिए।
  38. प्रश्न- कालिदास से पूर्वकाल में संस्कृत काव्य के विकास पर लेख लिखिए।
  39. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्यगत विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
  40. प्रश्न- महाकवि कालिदास के पश्चात् होने वाले संस्कृत काव्य के विकास की विवेचना कीजिए।
  41. प्रश्न- महर्षि वाल्मीकि का संक्षिप्त परिचय देते हुए यह भी बताइये कि उन्होंने रामायण की रचना कब की थी?
  42. प्रश्न- क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि माघ में उपमा का सौन्दर्य, अर्थगौरव का वैशिष्ट्य तथा पदलालित्य का चमत्कार विद्यमान है?
  43. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास के सम्पूर्ण जीवन पर प्रकाश डालते हुए, उनकी कृतियों के नाम बताइये।
  44. प्रश्न- आचार्य पाणिनि का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  45. प्रश्न- आचार्य पाणिनि ने व्याकरण को किस प्रकार तथा क्यों व्यवस्थित किया?
  46. प्रश्न- आचार्य कात्यायन का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  47. प्रश्न- आचार्य पतञ्जलि का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  48. प्रश्न- आदिकवि महर्षि बाल्मीकि विरचित आदि काव्य रामायण का परिचय दीजिए।
  49. प्रश्न- श्री हर्ष की अलंकार छन्द योजना का निरूपण कर नैषधं विद्ध दोषधम् की समीक्षा कीजिए।
  50. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत का परिचय दीजिए।
  51. प्रश्न- महाभारत के रचयिता का संक्षिप्त परिचय देकर रचनाकाल बतलाइये।
  52. प्रश्न- महाकवि भारवि के व्यक्तित्व एवं कर्त्तव्य पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- महाकवि हर्ष का परिचय लिखिए।
  54. प्रश्न- महाकवि भारवि की भाषा शैली अलंकार एवं छन्दों योजना पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- 'भारवेर्थगौरवम्' की समीक्षा कीजिए।
  56. प्रश्न- रामायण के रचयिता कौन थे तथा उन्होंने इसकी रचना क्यों की?
  57. प्रश्न- रामायण का मुख्य रस क्या है?
  58. प्रश्न- वाल्मीकि रामायण में कितने काण्ड हैं? प्रत्येक काण्ड का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  59. प्रश्न- "रामायण एक आर्दश काव्य है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  60. प्रश्न- क्या महाभारत काव्य है?
  61. प्रश्न- महाभारत का मुख्य रस क्या है?
  62. प्रश्न- क्या महाभारत विश्वसाहित्य का विशालतम ग्रन्थ है?
  63. प्रश्न- 'वृहत्त्रयी' से आप क्या समझते हैं?
  64. प्रश्न- भारवि का 'आतपत्र भारवि' नाम क्यों पड़ा?
  65. प्रश्न- 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' तथा 'आर्जवं कुटिलेषु न नीति:' भारवि के इस विचार से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  66. प्रश्न- 'महाकवि माघ चित्रकाव्य लिखने में सिद्धहस्त थे' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  67. प्रश्न- 'महाकवि माघ भक्तकवि है' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  68. प्रश्न- श्री हर्ष कौन थे?
  69. प्रश्न- श्री हर्ष की रचनाओं का परिचय दीजिए।
  70. प्रश्न- 'श्री हर्ष कवि से बढ़कर दार्शनिक थे।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  71. प्रश्न- श्री हर्ष की 'परिहास-प्रियता' का एक उदाहरण दीजिये।
  72. प्रश्न- नैषध महाकाव्य में प्रमुख रस क्या है?
  73. प्रश्न- "श्री हर्ष वैदर्भी रीति के कवि हैं" इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  74. प्रश्न- 'काश्यां मरणान्मुक्तिः' श्री हर्ष ने इस कथन का समर्थन किया है। उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
  75. प्रश्न- 'नैषध विद्वदौषधम्' यह कथन किससे सम्बध्य है तथा इस कथन की समीक्षा कीजिए।
  76. प्रश्न- 'त्रिमुनि' किसे कहते हैं? संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  77. प्रश्न- महाकवि भारवि का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी काव्य प्रतिभा का वर्णन कीजिए।
  78. प्रश्न- भारवि का विस्तार से वर्णन कीजिए।
  79. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग का संक्षिप्त कथानक प्रस्तुत कीजिए।
  80. प्रश्न- 'भारवेरर्थगौरवम्' पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
  81. प्रश्न- भारवि के महाकाव्य का नामोल्लेख करते हुए उसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  82. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की कथावस्तु एवं चरित्र-चित्रण पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की रस योजना पर प्रकाश डालिए।
  84. प्रश्न- महाकवि भवभूति का परिचय लिखिए।
  85. प्रश्न- महाकवि भवभूति की नाट्य-कला की समीक्षा कीजिए।
  86. प्रश्न- 'वरं विरोधोऽपि समं महात्माभिः' सूक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
  87. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए ।
  88. प्रश्न- कालिदास की जन्मभूमि एवं निवास स्थान का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- महाकवि कालिदास की कृतियों का उल्लेख कर महाकाव्यों पर प्रकाश डालिए।
  90. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्य शैली पर प्रकाश डालिए।
  91. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि कालिदास संस्कृत के श्रेष्ठतम कवि हैं।
  92. प्रश्न- उपमा अलंकार के लिए कौन सा कवि प्रसिद्ध है।
  93. प्रश्न- अपनी पाठ्य-पुस्तक में विद्यमान 'कुमारसम्भव' का कथासार प्रस्तुत कीजिए।
  94. प्रश्न- कालिदास की भाषा की समीक्षा कीजिए।
  95. प्रश्न- कालिदास की रसयोजना पर प्रकाश डालिए।
  96. प्रश्न- कालिदास की सौन्दर्य योजना पर प्रकाश डालिए।
  97. प्रश्न- 'उपमा कालिदासस्य' की समीक्षा कीजिए।
  98. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए -
  99. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि के जीवन-परिचय पर प्रकाश डालिए।
  100. प्रश्न- 'नीतिशतक' में लोकव्यवहार की शिक्षा किस प्रकार दी गयी है? लिखिए।
  101. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की कृतियों पर प्रकाश डालिए।
  102. प्रश्न- भर्तृहरि ने कितने शतकों की रचना की? उनका वर्ण्य विषय क्या है?
  103. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की भाषा शैली पर प्रकाश डालिए।
  104. प्रश्न- नीतिशतक का मूल्यांकन कीजिए।
  105. प्रश्न- धीर पुरुष एवं छुद्र पुरुष के लिए भर्तृहरि ने किन उपमाओं का प्रयोग किया है। उनकी सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
  106. प्रश्न- विद्या प्रशंसा सम्बन्धी नीतिशतकम् श्लोकों का उदाहरण देते हुए विद्या के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
  107. प्रश्न- भर्तृहरि की काव्य रचना का प्रयोजन की विवेचना कीजिए।
  108. प्रश्न- भर्तृहरि के काव्य सौष्ठव पर एक निबन्ध लिखिए।
  109. प्रश्न- 'लघुसिद्धान्तकौमुदी' का विग्रह कर अर्थ बतलाइये।
  110. प्रश्न- 'संज्ञा प्रकरण किसे कहते हैं?
  111. प्रश्न- माहेश्वर सूत्र या अक्षरसाम्नाय लिखिये।
  112. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए - इति माहेश्वराणि सूत्राणि, इत्संज्ञा, ऋरषाणां मूर्धा, हलन्त्यम् ,अदर्शनं लोपः आदि
  113. प्रश्न- सन्धि किसे कहते हैं?
  114. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- हल सन्धि किसे कहते हैं?
  116. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
  117. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।

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